Firaq gorakhpuri biography in hindi
फ़िराक़ गोरखपुरी: एक फक्कड़ शायर, ढीला-ढाला पैजामा और लटकता हुआ इजारबंद
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फ़िराक़ गोरखपुरी मुख्यतः उर्दू भाषा के साहित्यकार (Urdu Sahitya) थे, पर हिंदी और अंग्रेजी में भी इन्होंने कम ही सही मगर कलम आजमाई जरूर की थी.
– पीयूष द्विवेदी
Firaq Gorakhpuri: 28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर (Gorakhpur) के एक कायस्थ परिवार में जन्मे ‘रघुपति सहाय’ (Raghupati Sahay) को वक्त ने कब उर्दू साहित्य (Urdu Sahitya) का सितारा ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ (Firaq Gorakhpuri) बना दिया, इसका पता तो खुद उन्हें भी नही चला होगा.
कारण कि वे जिन्दगी के प्रति लापरवाह ही इतने थे कि उन्हें कुछ सुध ही नही रहती थी. जिन्दगी के प्रति उनकी ये लापरवाही उनकी पहनाव-पोशाक से लेकर बातों तक में झलकती थी.
उनके लापरवाह और बनावटीपन से रहित व्यक्तित्व की तरफ इशारा करते हुए हिंदी के प्रसिद्ध गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी (Vishwanath Tripathi) लिखते हैं, ”टोपी से बाहर झांकते हुए बिखरे बाल, शेरवानी के खुलेबटन, ढीला-ढाला पैजामा, लटकता हुआ इजारबंद, एक हाथ में सिगरेट और दूसरे में घड़ी, गहरी-गहरी और गोल-गोल- डस लेने वाली-सी आंखों में उनके व्यक्तित्व का फक्कड़पन खूब जाहिर होता था.”
इसे फ़िराक़ साहब (Shayar Firaq Gorakhpuri) की खूबी कहें या कमी कि वे अपने जीवन को लेकर कभी संतुष्ट नही रहे.
एक अजीब-सी नाराजगी थी उन्हें अपने जीवन से. खासकर अपने वैवाहिक-जीवन को लेकर तो वो आजीवन असंतुष्ट ही रहे. इस संदर्भ में खुद उनके ही शब्दों पर गौर करें, तो तस्वीर काफी हद तक साफ़ हो जाती है. वो कहते हैं, ”मेरी जिन्दादिली वह चादर है, वह परदा है, जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूं. ब्याह को छप्पन बरस हो चुके हैं और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दांत पीस-पीसकर न रह गया हूं.
मेरे सुख ही नहीं, मेरे दुख भी मेरे ब्याह ने मुझसे छीन लिये.”
उनके इन शब्दों को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि उनका स्वतंत्र और फक्कड़ व्यक्तित्व विवाह के दायरों में सीमित होकर रहने में काफी असहज महसूस करता रहा और ये घुटन ही जब-तब जीवन के प्रति उनकी नाराजगी के रूप में बाहर आती रही. थोड़ा गहराई से समझने पर फिराक साहब का जीवन के प्रति ये विराग उनकी रचनाओं में भी साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.
इसका सबसे अच्छा प्रमाण उनकी गजलों में लोकजीवन और प्रकृति आदि की अपेक्षा रुमानियत और सुकोमल सौंदर्य आदि भावों की अधिकाधिक उपस्थिति है.
फ़िराक़ गोरखपुरी मुख्यतः उर्दू भाषा के साहित्यकार (Urdu Sahitya) थे, पर हिंदी और अंग्रेजी में भी इन्होंने कम ही सही मगर कलम आजमाई जरूर की थी. हिंदी और अंग्रेजी में इनकी कुछ गद्य कृतियां प्रकाश में अवश्य आईं पर इसमें कोई दोराय नहीं कि साहित्य जगत में इन्हें सबसे ज्यादा ख्याति उर्दू से ही मिली.
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फ़िराक़ साहब ने अपने साहित्यिक सफर की शुरुआत ग़ज़ल से की थी.
इनकी ग़ज़लों में हम आम जीवन और प्रकृतिजन्य भावों की अपेक्षा सौंदर्य, रहस्य, रुमानियत आदि भावों को अधिक पाते हैं. इस संदर्भ में फिराक साहब का एक शेर गौरतलब होगा जिसमें उन्होंने बड़ी सहजता से सौंदर्य और प्रेम के भावों को बड़े रहस्यपूर्ण तरीके से भर दिया है.
फ़िराक़ साहब कहते हैं, “मेरी हर ग़ज़ल की ये आरजू, तुझे सजा-सजा के निकालिए / मेरी फ़िक्र हो तेरा आइना, मेरे नग्मे हो तेरे पैरहनन”.
इस शेर में हमें अपने आदर्श कल्पनालोकों के प्रति फिराक साहब का लगाव साफ-साफ दिखता है. ये देखते हुए इस बात से इंकार करना कठिन होगा कि फिराक साहब के कल्पनालोकों की भव्यता भी यथार्थ जीवन के प्रति उनके विराग के लिए एक प्रमुख कारण थी.
Fabrizio politi biography of martinअपनी कल्पनाओं में वो रमे-बसे थे, उनके अधिकाधिक अशआर यही दिखाते हैं. पर इसका ये भी अर्थ नहीं कि इन्हें समाज व राष्ट्र से कोई तात्पर्य नही था.
जीवन के प्रति बेपरवाह और असंतुष्ट होने के कारण भले ही उनकी रचनाएं जीवन के यथार्थ से दूर रही हों, पर जब भी राष्ट्र के सामने कोई संकट या समस्या आई, उनकी कलम गरज उठी और उसने उदास और निराश राष्ट्र में आशा का संचार किया.
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सन 1962 में जब भारत, चीन युद्ध की विभीषिका से गुजर रहा था और पूरे देश में शोक का माहौल था, तब उन्होंने वो गज़ल लिखी जिसने राष्ट्र को गम और उदासी से बाहर आने का संदेश दिया.
उन्होंने लिखा, “सुखन की शम्मा जलाओ बहुत उदास है रात/ नवाए मीर सुनाओ बहुत उदास है रात/ पड़े हो धुंधली फिजाओं में मुंह लपेटे हुये/ सितारों सामने आओ बहुत उदास है रात.”
साफ़ है कि वैयक्तिक तौर पर वो जीवन को लेकर चाहें जैसे हों, पर देश की बात आने पर उनकी सोच, आशा और जिजीविषा से पूर्ण हो जाती थी.
राष्ट्र के लिए वो सिर्फ कलम से ही नही, शरीर से भी हमेशा समर्पित रहे. नजीर के तौर पर देखें तो जब अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, तब अपनी मोटी तनख्वाह वाली और चिंतामुक्त कलक्टरी की नौकरी छोड़कर फिराक साहब देश सेवा के लिए तत्पर हो गए. इन्हीं सिलसिलों में उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा, पर उन्होंने कभी हार नही मानी और निरंतर रूप से राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए कलम के साथ-साथ शरीर से भी लगे रहे.
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कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि फ़िराक़ साहब बेशक जिंदगी से नाराज और असंतुष्ट थे, पर इसके बाद भी उन्होंने जीने में कभी, कोई कोताही नही की.
उन्हें जो मिला उन्होंने उसे अपनाया और दुनिया उनके बारे में क्या कहती है इससे बेपरवाह अपने फक्कड़पने में मस्त होकर जीते रहे. वो जिंदगी को अपनी शर्तों पर जिए और कभी भी, किसी के भी सामने झुके नही. जिन्दगी के बारे में उनका अंदाज कुछ यूं था ‘यूं माना जिंदगी है चार दिन की / बहुत होते हैं यारों चार दिन भी.‘ शायद उनके लिए जीने का फलसफा भी यही था.
वर्तमान दौर में जब धन-दौलत के पीछे पागल हुआ आदमी, आदमी से दूर होता जा रहा है, उसे देखते हुए फ़िराक़ साहब का ये शेर काफी प्रासंगिक लगता है, ‘खुदा को पा गया वायज मगर है / जरूरत आदमी को आदमी की.’
आज जरूरत है कि हम एकबार फिर से उन्हें शुरू से पढ़ें और समझें.
क्योंकि, वे जो थे, जैसे थे, लाजवाब थे और अपनी लाजवाबी को उन्होंने खुद भी स्वीकारते हुए कभी कहा था, ‘आने वाली नस्लें तुम पर फख्र करेंगी हम-असरो / जब ये ख्याल आएगा उनको, तुमने ‘फ़िराक़’ को देखा था.’
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है.
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