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मोहम्मद रफ़ी के 100 साल: जब मन्ना डे ने कहा, हज़ारों मुझ जैसे आएँगे पर एक और रफ़ी नहीं होगा

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  • Author, वंदना
  • पदनाम, सीनियर न्यूज़ एडिटर, बीबीसी न्यूज़

बर्फ़ीली पहाड़ियों पर दिल खोल कर खुल्लम-खुल्ला प्यार का इज़हार करते शम्मी कपूर को जब 'याहू...

चाहे कोई कोई मुझे जंगली कहे...' गाने के लिए आवाज़ चाहिए थी, तो वह अल्हड़ बाँकपन रफ़ी की आवाज़ में मिला.

जब इश्क़ के रूहानी रूप की बात आती है तो रफ़ी एक क़व्वाली को आवाज़ देते हैं- ये इश्क़ इश्क़ है, इश्क़ इश्क़... इश्क़ आज़ाद है, इश्क़ आज़ाद है, हिंदू न मुसलमान है इश्क़.

ये वही रफ़ी हैं जिनका गाया 'मन तपड़त हरि दर्शन को आज...' आज भी भक्ति रस के लिए याद किया जाता है.

यही नहीं, पर्दे पर गुरु दत्त जब भारत की हक़ीकत और हुकूमत दोनों से बेज़ार हो जाते हैं, तो ये रफ़ी ही हैं जो गाते हैं, 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहाँ हैं...'

ये सब मशहूर गायक मोहम्मद रफ़ी की गायकी के महज़ चंद रंग हैं. यह साल मोहम्मद रफ़ी की जन्मशती का है.

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मोहम्मद रफ़ी और शम्मी कपूर का साथ

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एक वक़्त था जब फ़िल्मों के हिट गाने का मतलब मोहम्मद रफ़ी होता था.

उनके न रहने के सालों बाद भी लोग उनकी आवाज़ और दिल जीत लेने वाले अंदाज़ के क़िस्से सुनाते नहीं थकते.

इसकी एक मिसाल शम्मी कपूर के क़िस्सों में मिलती है. कहा जाता है, जैसे मुकेश राज कपूर की आवाज़ थे, वैसे ही मोहम्मद रफ़ी शम्मी कपूर की आवाज़ थे.

सुजाता देव की किताब 'मोहम्मद रफ़ी- ए गोल्डन वॉयस' में शम्मी कपूर याद करते हैं, "हम लोगों को 'तारीफ़ करूँ क्या उसकी...' गाना रिकॉर्ड करना था.

रात भर मैं सो नहीं पाया. मैं चाहता था कि ये जुमला बार-बार दोहराया जाए और फिर गाने का अंत हो. लेकिन संगीतकार ओपी नैय्यर को मेरी सलाह पसंद नहीं आई."

"मेरी निराशा देखकर रफ़ी ओपी नैय्यर से बोले- पापा जी, आप कंपोज़र हो. मैं गायक हूँ पर पर्दे पर तो शम्मी कपूर को ही एक्टिंग करनी है. उन्हें करने दो. अगर अच्छा नहीं लगेगा तो हम दोबारा कर लेंगे.

रफ़ी साहब ने वैसे ही गाया, जैसा मैंने सोचा था."

शम्मी कपूर बताते हैं, "जब ओपी नैय्यर ने गाना देखा तो मुझे बाँहों में भर लिया और दुआएँ दीं. रफ़ी साहब ने अपनी शरारती पर नरम आवाज़ में कहा-अब बात बनी न? रफ़ी साहब चुटकी में दिल जीत लेते थे. मैं मोहम्मद रफ़ी के बग़ैर अधूरा हूँ."

'रफ़ी मियाँ, तुमने कितना ख़ूबसूरत गाया है'

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मुझे मशहूर गायक मन्ना डे का एक बहुत पुराना इंटरव्यू हमेशा याद आता है.

इसमें तब के पत्रकार राजीव शुक्ला के सवाल पर उन्होंने कहा था, "रफ़ी साहब नंबर वन थे. मुझसे बेहतर. मैं अपनी तुलना सिर्फ़ रफ़ी से करता हूँ. जैसा वह गाते थे, शायद ही कोई गा पाता. अगर रफ़ी नहीं होते तब ही मैं उनकी जगह ले सकता था. हम दो ऐसे गायक थे, जो हर तरह के गाने गा सकते थे."

मोहम्मद रफ़ी ने उस दौर में गाने गाए जब बतौर गायक मुकेश और किशोर कुमार भी फ़िल्मों में छाए हुए थे.

हालाँकि, इन सबके आपसी रिश्ते नायाब थे.

मुकेश के बेटे नितिन मुकेश ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में बताया, "इन सबका रिश्ता बहुत सुंदर था. मुझे ताज्जुब होता था जब फ़ोन उठाकर मुकेश जी रफ़ी साब को कहते, 'रफ़ी मियाँ, तुमने ये गीत इतना ख़ूबसूरत गाया है. काश, मैं तुम्हारी तरह गा सकता.' कभी रफ़ी साब का फ़ोन आता कि मुकेश तुमने कितना सुंदर गाया है."

जब रफ़ी ने कहा, मेरे गले में मिठास भर दो

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इतना मक़बूल होने के बावजूद रियाज़ और ख़ुद को बेहतर करने की मोहम्मद रफ़ी की ललक कैसी थी, इसका क़िस्सा संगीतकार ख़य्याम अलग-अलग जगहों पर कई बार बता चुके हैं.

ख़य्याम ने बताया था, "रफ़ी बार-बार मुझे दावत पर बुलाते.

मुझे लगा कि क्या माजरा है. फिर रफ़ी साब की ओर से मेरे लिए गुज़ारिश आई – आप मेरी आवाज़ में मिठास भर दीजिए. ये तब की बात है जब रफ़ी अपनी लोकप्रियता के उरूज पर थे. मुझे यक़ीन नहीं हुआ. दरअसल, उन दिनों रफ़ी हाई पिच वाले गाने गाया करते थे."

ख़य्याम कहते हैं, "मैंने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं.

जैसे, ये भूल जाएँ कि वे महान गायक हैं. रिहर्सल के दौरान उनके आसपास कोई नहीं होगा. इस दौरान वह फ़ोन पर भी किसी से बात नहीं करेंगे. रफ़ी साहब ने पूरी तन्मयता से मुझसे ट्रेनिंग ली. इसका नतीजा हुआ जब उन्होंने ग़ज़ल गाई– 'ग़ज़ब किया तेरे वादे पर ऐतबार किया...' वह मिठास जो रफ़ी को चाहिए थी, वह उन्हें मिली.

'रफ़ी मियाँ मैंने क्या म्यूज़िक स्कूल खोल रखा है...'

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अपनी गायकी के अलावा जिस बात के लिए अकसर लोग मोहम्मद रफ़ी की तारीफ़ किया करते हैं, वह था उनका शांत और विनम्र अंदाज़.

संगीतकार अमर हल्दीपुर सुजाता देव की किताब में बताते हैं, "1967-68 में सी.

रामचंद्र रफ़ी साहब के साथ एक गीत रिकॉर्ड कर रहे थे. लेकिन रफ़ी जी से बार-बार ग़लतियाँ हो रही थीं. कई बार रिकॉर्डिंग करनी पड़ी. सी. रामंचद्र ग़ुस्सा हो गए और कहा- रफ़ी मियाँ, क्या हो रहा है. मैंने क्या म्यूज़िक स्कूल खोल रखा है. जो गाना दिया है, याद कीजिए और गाइए."

वे बताते हैं, "रफ़ी जी ने माफ़ी भरे अंदाज़ में कहा, माफ़ कीजिए, ये गाना मेरे ज़हन में बैठ नहीं रहा है.

मैं अभी करता हूँ. उन्होंने तब तक गाया जब तक संगीत निर्देशक को तसल्ली नहीं हो गई. बाद में वह साज़ बजाने वाले सारे कलाकारों के पास गए. सबसे माफ़ी माँगी. इसी विनम्रता की वजह से वे सबके पसंदीदा थे."

जब चीन ने बजाए रफ़ी के गाने

मोहम्मद रफ़ी के गानों की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस पूर्व सैनिक के क़िस्से से भी मिलता है जो उन्होंने साल 2020 में अंग्रेज़ी अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' को दिए एक इंटरव्यू में सुनाया था.

साल 1962 की जंग लड़ चुके भारतीय सैनिक फुनचोक ताशी ने बताया था, "गलवान इलाक़े में भारत और चीन के बीच तनातनी चल रही थी.

चीन के सैनिकों ने वहाँ बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लगा दिए और हिंदी में घोषणा करते थे- ये जगह न आपकी है, न हमारी है. आप भी वापस चले जाओ, हम भी वापस जा रहे हैं. उसके बाद वे रफ़ी का गाना 'तुमसा नहीं देखा...' ज़ोर-ज़ोर से बजाते. साथ में लता मंगेशकर का गाया 'तन डोले...'. ये कई दिनों तक चला. वह ऐसा इसलिए करते कि भारतीय सैनिक चले जाएँ.

हालाँकि, हमने जगह नहीं छोड़ी."

लाहौर से रिश्ता

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अब थोड़ी बातें रफ़ी के बचपन के बारे में. मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में अल्लाह राखी और हाजी अली मोहम्मद के घर हुआ. प्यार से उन्हें फीको कहा गया.

हाजी अली मोहम्मद बेहतरीन खानसामा थे.

वे 1926 में लाहौर चले गए. फीको कोटला सुल्तान सिंह के स्कूल में ही पढ़ाई करते रहे.

बारह साल की उम्र में रफ़ी भी परिवार के बाकी सदस्यों के साथ लाहौर चले गए. इसके बाद रफ़ी कभी स्कूल नहीं गए. उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ बाल काटने का काम शुरू किया.

रफ़ी संगीत के दीवाने थे. पिता संगीत के सख़्त ख़िलाफ़ थे.

इस वजह से वे चोरी-छिपे ही गाते थे. ये क़िस्सा तो काफ़ी मशहूर है कि लाहौर में एकतारा बजाने वाला एक फ़कीर आया करता था. इसका गाना सुनते-सुनते रफ़ी उसके पीछे-पीछे चले जाते. वे अकसर हज़रत दाता गंज बख़्श की दरगाह पर भी जाते थे.

एक दफ़ा लाहौर में ऑल इंडिया रेडिया के अधिकारी जीवन लाल मट्टो नूर मोहल्ला से गुज़र रहे थे. तभी उनके कानों में एक बेहद सुरीली आवाज़ पड़ी.

आवाज़ अनोखी थी. आवाज़ का पीछा करते हुए वे उस दुकान में गए, जहाँ रफ़ी किसी का बाल काट रहे थे. उनकी गायकी से मुत्तासिर इस अधिकारी ने उन्हें रेडियो में काम करने का मौक़ा दिलाया.

एक बार लाहौर में उस वक़्त के मशहूर गायक केएल सहगल के कार्यक्रम में बत्ती गुल हो गई. समय काटने और लोगों को बांधे रखने के लिए युवा रफ़ी मंच पर आए. महफ़िल में मौजूद संगीत निर्देशक श्याम सुंदर उनसे इतना मुत्तासिर हुए कि रफ़ी को बंबई (आज का मुंबई) आने की सलाह देकर चले गए.

रफ़ी गाते रहे, पैरों से ख़ून निकलता रहा

पिता को छोड़ रफ़ी के परिवार के बाक़ी सदस्य उनके हुनर को समझते थे.

उन्हें लगा कि रफ़ी का भविष्य बंबई में है. रफ़ी बंबई चले गए. इसके बाद संघर्ष की शुरुआत हुई. उन्हीं संगीतकार श्याम सुंदर ने पंजाबी फ़िल्म 'गुलबलोच' में रफ़ी से गाना गवाया.

रफ़ी को शुरू में साल 1944 की फ़िल्म 'पहले आप' और फिर 'गाँव की गोरी' में गाने का मौक़ा मिला. 'पहले आप' में कोरस में गाना था.

गाना कुछ ऐसा था कि सैनिकों की कदमताल की आवाज़ की तरह गायकों को भी कदमताल करनी थी.

रिकॉर्डिंग के बाद नौशाद ने देखा कि रफ़ी के पैरों से ख़ून निकल रहा है. पूछने पर मोहम्मद रफ़ी ने बताया कि उनके जूते कुछ ज़्यादा ही टाइट हैं. चूँकि, गाना चल रहा था इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा.

मोहम्मद रफ़ी की शोहरत और कामयाबी की बात संगीतकार नौशाद का ज़िक्र किए बग़ैर अधूरी है.

दोनों ने 'बैजू बावरा', 'कोहिनूर', 'मदर इंडिया', 'मुग़ले-ए-आज़म', 'आन', 'गंगा जमुना', 'मेरे महबूब', 'राम और श्याम', 'पाकीज़ा' जैसी अनेक फ़िल्मों में साथ काम किया.

नौशाद के बेटे राजू नौशाद के मुताबिक, "नौशाद रफ़ी जी से घंटों रियाज़ करवाते थे और रफ़ी जी बैठकर अभ्यास करते रहते.

तब नौशाद उनसे हँसते हुए कहते कि अब जाओ और दूसरे गानों की प्रैक्टिस करो, वरना तुम कभी अमीर नहीं बन पाओगे."

ये रिश्ता सिर्फ़ संगीत का नहीं था. रफ़ी साहब की बेटियों का निकाह भी नौशाद ने पढ़वाया था.

जब रफ़ी से रीटेक के लिए कहा गया...

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ऐसा नहीं था कि विनम्र तबीयत वाले मोहम्मद रफ़ी कभी नाराज़ नहीं हुआ करते थे लेकिन उसका भी उनका अलग अंदाज़ था.

'मोहम्मद रफ़ी- ए गोल्डन वॉयस' किताब में वरिष्ठ संगीतकार ओमी ने अपनी यादें साझा की हैं.

वे बताते हैं, "एक बार रफ़ी मुझसे नाराज़ हो गए, जो बहुत कम होता था. साल 1973 में फ़िल्म 'धर्मा' की क़व्वाली 'राज़ की बात कह दूँ तो...' की रिकॉर्डिंग थी. मैं रीटेक करना चाहता था. रफ़ी साहब थोड़ा सा नाराज़ हो गए और बोले- क्या कह रहे हो? रफ़ी साहब से ऐसी बात सुनना असामान्य बात थी. मैंने भी थोड़ा सख़्ती से कहा, ठीक है.

पैक अप. रफ़ी साहब बिना एक शब्द कहे चले गए."

ओमी के मुताबिक, "अगली सुबह छह बजे घर की घंटी बजी. सामने रफ़ी साहब थे. उन्होंने पंजाबी में कहा– क्या मैंने तुम्हें नाराज़ कर दिया. चलो कल वाली क़व्वाली सुनते हैं. मैं अमरीका से स्पीकर लाया था, इन्हीं पर सुनते हैं. सुनने के बाद रफ़ी जी ने विनम्रता से पूछा कि क्या दोबारा रिकॉर्ड करना है?"

"मैंने उन्हें गला लगा लिया और कहा कि ख़ान अपने स्पीकर लेकर जाओ.

मैं उन्हें ख़ान बुलाता था. तब वे बोले, ये स्पीकर आपके लिए हैं. रफ़ी जी की फ़ीस तीन हज़ार रुपए थी और स्पीकर की क़ीमत 20 हज़ार रुपए. ये थे रफ़ी साहब."

रफ़ी के करियर में आई ढलान

ऐसा नहीं है कि कामयाब होने के बावजूद उनके लिए चुनौती नहीं थी. रफ़ी साहब पर 'दास्तान-ए-रफ़ी' नाम की डॉक्यूमेंट्री बनी है.

डॉक्यूमेंट्री में संगीतकार मदन मोहन के बेटे संजीव कोहली कहते हैं, "कभी-कभी गायकी की विविधता बाधा भी बन जाती है.

जैसे, रफ़ी साहब ने 60 के दशक में 'जंगली' की. वे बार-बार देखो... जैसे गाने गाते थे. वे अपना स्टाइल बना रहे थे. लेकिन एक बार मदन मोहन जी ने रफ़ी साहब को कहा कि अगर तुमने अभी 'याहू' जैसा गाना गाया है तो मैं अभी अपनी रिकॉर्डिंग कैंसिल कर रहा हूँ. तुम पहले उस मूड से निकल जाओ. मेरा गाना गंभीर है. मुझे उसमें अदायगी कम चाहिए."

मोहम्मद रफ़ी ने करियर की ऊँचाइयाँ देखीं तो एक ऐसा भी दौर आया जब उसमें ढलान दिखने लगी.

यह बात सत्तर के दशक के शुरुआत की है.

उस दौरान रफ़ी हज करके लौटे थे. वहाँ किसी ने उनसे कह दिया था कि मौसिक़ी की उनके मज़हब में कोई जगह नहीं है. इसके बाद रफ़ी ने कुछ समय के लिए गाना छोड़ दिया.

दिलीप कुमार, शम्मी कपूर जैसे दिग्गज अभिनेता जिनके लिए रफ़ी गाया करते थे, वे धीरे- धीरे सिमट रहे थे.

ये राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन वाला दौर था. जो संगीतकार और गीतकार रफ़ी के लिए गीत-संगीत रचते थे, उनमें से कई गुज़र चुके थे. या एसडी बर्मन की जगह आरडी बर्मन जैसे नई पीढ़ी के संगीतरकार ले रहे थे. ये नए तरह के संगीत और किशोर कुमार जैसे गायकों के साथ काम करने लगे थे.

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तब कई लोगों ने कहा कि रफ़ी का युग अब चला गया.

लेकिन रफ़ी ने इस दौर को ख़ुद पर हावी नहीं होने दिया.

कई संगीतकारों ने भी उनका साथ दिया. जब फ़िल्म 'लैला-मजनू' का संगीत तैयार हो रहा था तो मदन मोहन इस बात पर अड़ गए थे कि युवा एक्टर ऋषि कपूर के लिए रफ़ी ही गाएँगे, वरना वे फ़िल्म नहीं करेंगे.

जब साल 1976 में फ़िल्म रिलीज़ हुई तो इनके गाये गाने ज़बरदस्त हिट हुए. हालाँकि, इससे पहले ही मदन मोहन गुज़र गए थे.

साल 1977 में रफ़ी का गाना 'क्या हुआ तेरा वादा...' आया.

इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. साल 1977 में युवा ऋषि कपूर के लिए रफ़ी ने मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर एंथनी' के लिए एक क़व्वाली गाई- पर्दा है पर्दा... यह भी काफ़ी मशहूर हुआ.

कई लोग हैरान थे कि जिसके पिता राज कपूर के लिए रफ़ी गा चुके हैं, उस नए एक्टर के लिए लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने रफ़ी को क्यों चुना.

लेकिन इन गानों से रफ़ी ने ज़बरदस्त वापसी की.

लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपनी पहली फ़िल्म 'पारसमणि' भी रफ़ी के साथ ही की थी. इत्तेफ़ाक़न लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की फ़िल्म 'आसपास (1980) में मोहम्मद रफ़ी ने अपना आख़िरी गाना गाया- तेरे आने की आस है दोस्त, शाम क्यूँ फिर उदास है दोस्त.

जब मैं टॉप पर रहूँ तो अल्लाह मुझे उठा ले ...

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हर दौर के गायकों पर मोहम्मद रफ़ी का असर रहा है.

इसमें सोनू निगम भी शामिल हैं.

बीबीसी हिंदी से बातचीत में सोनू निगम ने कहा था, "जब मैं मुंबई गायक बनने आया था तो मेरी यही कोशिश होती थी कि रफ़ी साहब की आवाज़ को लेकर आऊँ और उनके जैसा गाऊँ. मोहम्मद रफ़ी साहब मेरे लिए भगवान हैं. हालाँकि, मैंने उनको कभी देखा नहीं लेकिन उनसे प्रेरणा लेकर और उनको सुन-सुन कर गाता रहा हूँ. बाद में अपना स्टाइल बनाया."

मोहम्मद रफ़ी की बेटी नसरीन के मुताबिक, रफ़ी साहब कहा करते थे कि मैं अल्लाह से यही दुआ करता हूँ कि जब मैं टॉप पर रहूँ तो वह मुझे उठा ले और उनकी दुआ क़ुबूल हो गई.

साल 1980 में जब उनका इंतक़ाल हुआ तो वे टॉप पर थे.

मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी एक दफ़ा साथ में स्टेज शो में कर रहे थे. तब मन्ना डे ने मंच पर कहा था, "दोस्तों, इस युग में हज़ारों मन्ना डे आएँगे पर कभी एक और मोहम्मद रफ़ी नहीं होगा."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.

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